संदर्भ
- Source -Physics wallah(PW)
भारतीय उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 2002 में गुजरात राज्य में हुए साम्प्रदायिक दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने वाले 11 दोषियों को गुजरात सरकार द्वारा दिए गए क्षमादान को निरस्त कर दिया है।
संबंधित तथ्य:
- इस मामले में सभी 11 आरोपी आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे थे।
- न्यायालय ने दोषियों को दो सप्ताह के भीतर जेल में आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया है।
अपराध | 3 मार्च, 2002: गोधरा कांड के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान गुजरात के दाहोद जिले में 21 वर्षीय बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया जो उस समय पाँच महीने की गर्भवती थी।दंगाइयों द्वारा उसके परिवार के सात सदस्यों को मार दिया गया, जिसमें उसकी तीन वर्ष की बेटी भी शामिल थी। |
उच्चतम न्यायालय ने CBI को बुलाया | 6 दिसंबर, 2003: उच्चतम न्यायालय ने इस मामले की जाँच को केंद्रीय जाँच ब्यूरो (Central Bureau of Investigation-CBI) को हस्तांतरित कर दिया। |
निर्णय और अपील | अगस्त, 2004: उच्चतम न्यायालय ने मुकदमे को गुजरात से मुंबई स्थानांतरित कर दिया और केंद्र सरकार को एक विशेष लोक अभियोजक (Special Public Prosecutor) नियुक्त करने का निर्देश दिया।21 जनवरी, 2008: मुंबई की एक सत्र अदालत ने आरोपियों को हत्या और बलात्कार के लिए दोषी ठहराया तथा आजीवन कारावास की सजा सुनाई।मई 2017: मुंबई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति वीके ताहिलरमानी की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने 11 दोषियों की सजा और आजीवन कारावास को बरकरार रखा। |
दोषियों को रिहा किया गया | 15 अगस्त, 2022: गुजरात सरकार द्वारा क्षमादान मिलने पर राधेश्याम शाह सहित 11 दोषियों को गोधरा उप-जेल से रिहा कर दिया गया।दोषियों को इस मामले में दंड के निर्धारण के समय लागू क्षमादान नीति के तहत रिहा कर दिया गया। |
उच्चतम न्यायालय | सितंबर 2022: बिलकिस बानो ने इन 11 दोषियों की समय-पूर्व रिहाई को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर करने के साथ SC के उस फैसले के खिलाफ एक समीक्षा याचिका भी दायर की, जिसमें गुजरात सरकार को दोषियों की सजा माफी पर निर्णय लेने की अनुमति दी गई थी, जिसे जस्टिस अजय रस्तोगी और विक्रम नाथ की पीठ ने खारिज कर दिया था। ।8 जनवरी, 2024: उच्चतम न्यायालय ने 11 दोषियों को सजा में छूट देने के गुजरात सरकार के फैसले को रद्द कर दिया। |
न्यायालय द्वारा अपने निर्णय में उठाए गए कानूनी मुद्दे:
- याचिकाओं की स्वीकार्यता (Maintainability of Petitions):
- अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर करने का अधिकार: उन्होंने अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के तहत अपने मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की थी।
- अधिकारों को लागू करने के लिए अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की थी।
- अनुच्छेद 14: विधि के समक्ष समानता की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 21: जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है
- अनुच्छेद 32 का उद्देश्य और महत्त्त्व: न्यायालय इस बात पर जोर देता है कि अनुच्छेद 32 को ‘संविधान की आत्मा’ माना जाता है और इसका उद्देश्य अन्य मौलिक अधिकारों को लागू करना है।
- अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर करने का मौलिक अधिकार: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 32 के तहत दायर की गई याचिका “स्पष्ट रूप से विचारणीय/स्वीकार्य” (Clearly Maintainable) है।
- क्षमादान आदेशों को चुनौती देने वाली जनहित याचिका की विचारणीयता:
- बिलकिस बानो द्वारा अनुच्छेद 32 का प्रयोग: SC ने कहा कि बिलकिस बानो ने अनुच्छेद 32 का हवाला दिया है, जिससे जनहित याचिका की स्वीकार्यता का प्रश्न कम प्रासंगिक हो जाता है।
- गुजरात सरकार की क्षमादान आदेश संबंधी योग्यता:
- CrPC की धारा 432: SC ने कहा कि गुजरात सरकार के पास इस मामले में क्षमादान का अधिकार या क्षेत्राधिकार नहीं था, क्योंकि दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure-CrPC) की धारा 432 के तहत क्षमादान के लिए आवेदन केवल उस सरकार के समक्ष किया जा सकता है जिसके प्रादेशिक अधिकार क्षेत्र में आवेदक को दोषी ठहराया गया था। (इस मामले में गुजरात की बजाय महाराष्ट्र राज्य)।
- CrPC के तहत क्षमादान प्रक्रिया:
- धारा 432: यह धारा सरकार को सजा को निलंबित करने या कम करने की शक्ति प्रदान करती है।
- धारा 432(1): यह उपधारा उचित सरकार को सजा को निलंबित करने या सजा को पूरी तरह या आंशिक रूप से कम करने की अनुमति देती है।
- धारा 432(7): “उचित सरकार” (Appropriate Government) से अभिप्राय उस राज्य सरकार से है, जिसके अधिकार क्षेत्र में अपराधी को सजा सुनाई गई है।
- क्षमादान आदेशों में कानून का पालन न करना:
- उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा पारित रिहाई आदेशों को गैर-कानूनी घोषित किया है। इसके पीछे चार मुख्य कारण हैं:
- गुजरात सरकार द्वारा सत्ता का हनन/अतिक्रमण: SC ने कहा कि गुजरात सरकार ने “महाराष्ट्र राज्य के अधिकारों का अतिक्रमण किया है” क्योंकि इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ही छूट मांगने वाले आवेदनों पर विचार कर सकता थी।
- गुजरात सरकार की नीति की अनुपयुक्तता: 9 जुलाई, 1992 की गुजरात सरकार की क्षमादान नीति, जिसका उपयोग क्षमादान आदेश पारित करने के लिए किया गया था, 11 दोषियों के मामले पर लागू नहीं होती थी।
- पीठासीन न्यायाधीश की राय की निष्प्रभाविता : विशेष न्यायालय, मुंबई के पीठासीन न्यायाधीश की राय को गुजरात सरकार द्वारा “निष्प्रभावी“ कर दिया गया, जिसके पास किसी भी मामले में दोषियों की सजा माफ करने की याचिका पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था।
- अदत्त जुर्माने की अनदेखी: न्यायालय ने रेखांकित किया कि अधिकारियों ने इस तथ्य की अनदेखी की कि दोषियों ने मुंबई की विशेष अदालत द्वारा आरोपित जुर्माने का भुगतान नहीं किया था, जो एक प्रासंगिक बिंदु होना चाहिए था।
- क्षमादान निरस्त करने के बाद दोषियों की स्थिति पर निर्णय:
- कानून का शासन बनाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संतुलन: न्यायालय ने कहा कि उसने प्राथमिक रूप से कानून के शासन और किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया है।
- कानून के शासन पर प्राथमिक विचार: SC ने कहा कि इसने किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के सापेक्ष कानून के शासन के प्राथमिक विचार को संतुलित करने का प्रयास किया है।
- क्षमादान के आदेशों को रद्द करना: न्यायालय ने क्षमादान के आदेशों को रद्द करने का निर्देश दिया और दोषियों को दो सप्ताह के भीतर जेल अधिकारियों को रिपोर्ट करने का निर्देश दिया गया।
- कानून का शासन:
- इसका मतलब है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, यह शासन और लोकतांत्रिक राजनीति का मूल नियम है।
- एक अवधारणा जो कार्यपालिका की अराजकता की जाँच करती है, यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी अधिकारी या प्रशासक विधायी मंजूरी के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार या हिरासत में नहीं ले सकता है।
- रिट (Writ):
- ये भारत में मौलिक अधिकारों की रक्षा और कानून का शासन लागू करने के लिए बुनियादी उपकरण हैं।
- मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में, कोई भी व्यक्ति उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32 के तहत) या उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226 के तहत) में याचिका दायर कर सकता है।
- भारतीय संविधान पाँच प्रकार की रिटों का प्रावधान करता है-बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari), अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto)।
- उच्चतम न्यायालय के फैसले का सार:
- कानून का शासन कायम रहना चाहिए:
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कानून के शासन की सर्वोच्चता: पीठ ने दोषियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कानून के शासन की सर्वोच्चता का पक्ष लेते हुए कहा कि अनुच्छेद 21 किसी व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार को इस तरह से सीमित करने की अनुमति नहीं देता है जो कानून के शासन द्वारा समर्थित नहीं है।
- अनुच्छेद 14 के तहत समानता और न्यायिक जाँच: अदालत ने कहा कि कानून के नियम का उल्लंघन समानता को नकारने के समान है और इस प्रकार कानून के समक्ष “समानता” अपने आप में एक “खोखला” (निरर्थक) शब्द बन जाएगा यदि इसके उल्लंघन पर न्यायिक जाँच नहीं होती है और यदि अदालतें कानून के शासन को लागू नहीं करती हैं।
- न्यायपालिका कानून के शासन का संरक्षक और एक लोकतांत्रिक राज्य का केंद्रीय स्तंभ है।
- न्यायमूर्ति वी आर कृष्णा अय्यर का कथन: माननीय न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर के कथन का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि “कानून के शासन का सबसे अच्छा समय वह है जब कानून जीवन को अनुशासित करता है और प्रतिबद्धता/प्रतिज्ञा को प्रदर्शन/परिणाम के साथ जोड़ता है” एवं न्यायाधीश को “कानून के शासन के प्रति वफादार रहना चाहिए”।
- न्यायमूर्ति एच आर खन्ना के निर्णय का उदाहरण: न्यायालय ने न्यायमूर्ति एच आर खन्ना के असहमति वाले फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि “कानून का शासन मनमानेपन या निरंकुशता के ठीक विपरीत है”(“Rule of law is the Antithesis of Arbitrariness”)।
- लोकतंत्र के सार का संरक्षण: पीठ ने कहा कि कानून का शासन, जो लोकतंत्र की आत्मा है, को लागू करने में दया और सहानुभूति का कोई स्थान नहीं है। अदालतों को इसे बिना किसी भय, पक्षपात, स्नेह या द्वेष के “संरक्षित” करना तथा लागू करना चाहिए।
- दोषियों को उपलब्ध विकल्प:
- समीक्षा याचिका: दोषी फैसले की तारीख के 30 दिनों के भीतर उच्चतम न्यायालय के समक्ष समीक्षा याचिका दायर कर सकते हैं।
- क्षमादान के लिए आवेदन: दोषी जेल में कुछ समय बिताने के बाद नए क्षमादान के लिए आवेदन कर सकते हैं। हालाँकि, उन्हें क्षमादान के लिए महाराष्ट्र सरकार से अपील करनी होगी, क्योंकि मुकदमा उसी राज्य में हुआ था।
- समीक्षा याचिका (Review Petition) के बारे में:
- संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 137 के तहत, SC अपने किसी भी फैसले या आदेश की समीक्षा कर सकता है।
- उद्देश्य: अदालत “पेटेंट त्रुटि” (Patent Error) को ठीक करने के लिए अपने फैसलों की समीक्षा कर सकती है, न कि “महत्त्वहीन आशय की छोटी गलतियों” के लिए।
- उपचारात्मक याचिका (Curative Petition):
- यह एक ऐसी याचिका है जो न्यायालय से उसके स्वयं के निर्णय की समीक्षा करने का अनुरोध करती है, भले ही पहले दायर की गई समीक्षा याचिका खारिज कर दी गई हो। जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि न्याय में कोई गड़बड़ी न हो और प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोका जा सके।
- सजा और क्षमादान की नीति:
- सुधार के लिए सजा: यूनानी दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, “दंड प्रतिशोध के लिए नहीं बल्कि रोकथाम और सुधार के लिए दिया जाना चाहिए।
- सजा का उपचारात्मक सिद्धांत, सजा को एक प्रकार की दवा के रूप में देखता है, जो दंडित व्यक्ति के स्वयं के हित के लिए दी जाती है। यह इस विचार पर आधारित है कि अपराधी को सुधारने और पुनर्वासित करने के लिए सजा दी जानी चाहिए, न कि केवल उसे दंडित देने के लिए।
- क्षमा की नीति का मूल: यदि किसी अपराधी का उपचार संभव है, तो उसे शिक्षा और अन्य उपयुक्त कलाओं द्वारा सुधारा जाना चाहिए और फिर एक बेहतर नागरिक के रूप में मुक्त किया जाना चाहिए, जिससे राज्य पर बोझ कम पड़े।
- संवैधानिक प्रावधान: राष्ट्रपति (अनुच्छेद 72) और राज्यपाल (अनुच्छेद 161) दोनों के पास क्षमा की शक्ति है।
- राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति:
- अनुच्छेद 72:
- वह किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति की सजा को माफ कर सकता है, राहत दे सकता है, सजा कम कर सकता है या निलंबित कर सकता है।
- राज्यपाल की क्षमादान शक्ति:
- (अनुच्छेद 161): वह क्षमादान, स्थगन, छूट या दंड में राहत दे सकता/सकती है, या सजा को निलंबित, कम या परिवर्तित कर सकता/सकती है।
- राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्तियों के बीच अंतर:
- अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति की शक्ति अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल की तुलना में व्यापक है जो निम्नलिखित दो मायनों में भिन्न है:
- कोर्ट मार्शल: राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान का अधिकार उन मामलों में दिया जाता है, जहाँ दंड या सजा कोर्ट मार्शल द्वारा दी जाती है, लेकिन अनुच्छेद 161 राज्यपाल को ऐसी कोई शक्ति प्रदान नहीं करता है।
- मौत की सजा: राष्ट्रपति मृत्युदंड की सजा को माफ कर सकता है लेकिन राज्यपाल की शक्ति मृत्युदंड की सजा के मामलों तक विस्तारित नहीं है।
- क्षमादान के समय उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी:
- ‘लक्ष्मण नस्कर बनाम भारत संघ’ (2000) मामले में उच्चतम न्यायालय ने पाँच आधार दिए:
- क्या अपराध एक व्यक्तिगत अपराध है जिसका समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है,
- क्या भविष्य में अपराध दोहराए जाने की संभावना है,
- क्या दोषी ने अपराध करने की क्षमता खो दी है,
- क्या दोषी को जेल में रखने से कोई उद्देश्य पूरा हो रहा है,
- दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ,
- साथ ही, उम्रकैद की सजा काट रहे दोषी कम-से-कम 14 वर्ष जेल में बिताने के बाद क्षमादान पाने के हकदार हैं।
- केहर सिंह बनाम भारत संघ (1989) मामला: SC ने माना कि अदालतें किसी कैदी को सजा माफी के लाभ से प्रतिबंधित नहीं कर सकती हैं।
- हरियाणा राज्य बनाम महेंद्र सिंह (2007) मामला: SC ने कहा है कि भले ही किसी भी दोषी के पास सजा माफी का मौलिक अधिकार नहीं है, फिर भी राज्य को माफी की अपनी कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते हुए प्रासंगिक कारक को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक पृथक मामले पर विचार करना चाहिए।
- बिलकिस बानो मामले में सामने आईं चुनौतियाँ:
- सांप्रदायिक हिंसा की व्यापकता: बिलकिस बानो मामला भारत में सांप्रदायिक हिंसा के मुद्दे और पीड़ितों को न्याय दिलाने में कमियों को उजागर करता है।
- इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए कानूनों का सख्ती से कार्यान्वयन जरूरी है।
- महिलाओं की खराब स्थिति: यह मामला महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के मुद्दे और उन्हें वस्तुओं के रूप में सोचने संबंधी नैतिक चिंता पर प्रकाश डालता है।
- इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए महिलाओं के अधिकारों और मानसिक बदलाव की रक्षा करने की आवश्यकता है।
- न्याय प्राप्त करने में चुनौती: बिलकिस बानो की लंबी लड़ाई बहुत कठिन तरीके से न्याय प्राप्त करने की चिंता को उजागर करती है।
- इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए न्यायिक समझ और फैसलों में समरूपता की जरूरत है।
- निष्कर्ष: उच्चतम न्यायालय का क्षमादान को रद्द करने का निर्णय कानूनी प्रणाली में विश्वास बहाल करता है और यह कानून के शासन के महत्त्त्व पर जोर देकर भविष्य में क्षमादान के मामलों के लिए एक उदाहरण स्थापित करता है।